विजय ही विजय है

शुक्रवार, 30 नवंबर 2007

आदर्श के रूप में गुजरात

लेखक- राजनाथ सिंह सूर्य

स्वर्गीय लक्ष्मीकांत तिवारी उत्तर प्रदेश के मूर्धन्य पत्रकार थे। दायित्व की दक्षता के साथ-साथ हास-परिहास से सदैव प्रफुल्लित रहने वाले लक्ष्मीकांत तिवारी उस समय टूट गए जब उनके होनहार पुत्र की मोहल्ले के गुंडों ने चाकू मारकर हत्या कर दी। वह कई महीने घर से नहीं निकले। एक दिन अचानक विधानभवन स्थित प्रेस क्लब आ गए। वहां बैठे सभी लोग चुप हो गए, लेकिन तिवारी जी ने अपने पुराने अंदाज में लोगों को गुदगुदाना शुरू कर दिया। थोड़ी देर बैठने के बाद मुझसे बोले, चलो तुम्हारे कार्यालय चलता हूं। विधान भवन के द्वार पर निकलते समय एक और वरिष्ठ पत्रकार मिल गए। तिवारी जी को देखते ही लंबी सांस लेकर बोले, आपके बेटे के बारे में जानकर बहुत दु:ख हुआ। उनकी बात सुनकर तिवारी जी लड़खड़ा गए। थोड़ी देर बाद बोले, मैं जिस बात को भूलना चाहता हूं, सहानुभूति दिखाने वाले उसी को याद दिला देते है। इस घटना को तीस वर्ष के लगभग हो गए। जब-जब देश के सेकुलरिस्ट गुजरात के पीड़ितों के नाम पर एकजुटता दिखाकर मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को घेरने का प्रयास करते है तब-तब उक्त घटना मुझे याद आ जाती है। जैसे तिवारी जी अपने बेटे की मौत का गम भूल जाना चाहते हैं उसी तरह गुजरात के लोग भी गोधरा और उसके बाद की घटनाओं को भूल जाना चाहते है। उस काले अध्याय के बाद गुजरात ने विकास की जैसी दिशा पकड़ ली है वही ऐसी त्रासदी से उबरने का सर्वोत्तम उपाय है। जो लोग सार्वजनिक रूप से नरेन्द्र मोदी से गुजरात को मुक्त कराने की मुहिम चला रहे है वे भी यह स्वीकार किए बिना नहीं रह पाते हैं कि देश में यदि सर्वाधिक विकासोन्मुख कोई राज्य है तो वह गुजरात है और इसका श्रेय भी वे नरेन्द्र मोदी को देते है। आज के राजनीतिक माहौल में जहां ज्यादातर मुख्यमंत्री या अन्य राजनेता किसी न किसी निजी आचरण के कारण चर्चित है तब नरेन्द्र मोदी की चर्चा उनकी प्रशासन क्षमता के कारण हो रही है।

गुजरात में विधानसभा का चुनाव का वक्त आ गया है। नरेन्द्र मोदी के खिलाफ देश के सेकुलरिस्टों और कांग्रेस के साथ-साथ भाजपा के कुछ असंतुष्टों ने कमर कस ली है, लेकिन वे जो भी वार करते है उसकी धार मुड़ जाती है। तहलका द्वारा गोधरा के बाद की स्थिति के संदर्भ में जो स्टिंग आपरेशन किया गया उसके प्रसारण से देश के अन्य भागों में चाहे जैसी प्रतिक्रिया रही हो, गुजरात में उस कथित रहस्योद्घाटन को कोई महत्व नहीं दे रहा। अब तो सेकुलरिस्ट भी उसकी चर्चा नहीं करते, क्योंकि उन्हे भय है कि वर्णित तथ्यों के प्रचार का लाभ नरेन्द्र मोदी को ही मिलेगा। गुजराती स्वभाव से अध्यावसायी हैं। उनमें उद्यमशीलता कूट-कूट कर भरी हुई है। भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद से इस गुजराती स्वभाव को परवान चढ़ाने का प्रयास किया गया। नरेन्द्र मोदी ने उसे सफल कर दिखाया। साबरमती नदी में नौकायन हो रहा है। नदियों का जल समुद्र में जाने से रोक कर अनेक विशाल जलाशयों में संरक्षित किया गया ताकि लोगों को पर्याप्त जल मिल सके। कृषि में भी इस जल का भरपूर उपयोग हो रहा है। गुजरातियों की मानसिकता का अनुमान भयावह भूकंप से हुई तबाही के बाद पुन: संरचना के प्रयासों की सफलता से लगाया जा सकता है। ऐसी मानसिकता वाले अवाम को जब उसी मानसिकता का नेतृत्व मिल जाता है तो उसका वही परिणाम होता है जो आज गुजरात में हो रहा है। नरेन्द्र मोदी को राजनीतिज्ञ चाहे जिस दृष्टि से देखते हों, उनकी अपनी पार्टी में भी उनके प्रति चाहे जैसा असंतोष हो, गुजरात की जनता तो इस संभावना से चिंतित है कि आगामी लोकसभा चुनाव के बाद नरेन्द्र मोदी की भूमिका कहीं दिल्ली में केंद्रित न हो जाए। वे मोदी को अभी मुख्यमंत्री के रूप में ही देखना चाहते है।

यह आकलन उन सेकुलर पत्रकारों का है जो मोदी को जेल के सीखचों में बंद देखना चाहते है। मेरा मकसद नरेन्द्र मोदी की तारीफ में कसीदे काढ़ना नहीं है और न मेरा तात्पर्य यह समझाने का प्रयास करना है कि मोदी की चुनावी सफलता सुनिश्चित है। द्वितीय विश्व युद्ध जीतने के बावजूद यदि ब्रिटेन में विंस्टन चर्चिल चुनाव हार सकते हैं तो गुजरात में नरेन्द्र मोदी क्यों नहीं हार सकते। हमारे देश में चुनाव में हार-जीत तात्कालिक उभरी स्थानीय भावना का अधिक योगदान होता है। जो लोग गोधरा के बाद की घटनाओं को उजागर करने में लगे है वे ऐसा करते समय यह भूल जाते है कि आखिरकार बाद की घटनाएं क्यों घटित हुईं। गोधरा रेलवे स्टेशन पर साबरमती एक्सप्रेस के डिब्बे में दर्जनों लोगों को जिंदा जला देने की प्रतिक्रिया को वे लोग स्वाभाविक नहीं मानते जो विवादित ढांचा ध्वस्त होने के बाद की प्रतिक्रिया को स्वाभाविक मान लेने की वकालत बराबर करते रहे हैं। गोधरा न हुआ होता तो बाद की घटनाएं न होतीं। इसलिए जब बाद की घटनाओं को उभारा जाता है तो गोधरा अपने आप उभरकर सामने आ जाता है।

गुजरात के सभी विचारवान लोगों का मानना है कि उस काले अध्याय को भूलकर भविष्य की ओर देखने में ही गुजरात का भला है। नरेन्द्र मोदी ने यह किया और उसका लाभ प्रत्येक गुजराती को मिल रहा है। अतीत में जब भी कहीं ऐसी घटनाएं हुई है उन्हे और कुरेदने के बजाय मरहम लगाने का प्रयास किया गया। इसी कारण दंगों की जांच रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की जाती रही है, लेकिन अब इस मामले में भी कांग्रेस ने सेकुलरिस्टों और वामपंथियों के दबाव में झुकना शुरू कर दिया है। जिस कांग्रेस ने राजीव गांधी हत्याकांड में डीएमके की लिप्तता के संदर्भ में जैन कमीशन के निष्कर्ष के आधार पर गुजराल सरकार को गिरा दिया वही आज डीएमके के साथ मिलकर केंद्र की सत्ता चला रही है। यदि यह प्रयास अतीत के घावों को न कुरेदने की नीति के अनुरूप है तो फिर ऐसे अन्य घावों पर मरहम लगाने के बजाय उन्हें कुरेदने की कोशिश क्यों की जा रही है। गुजरात की जनता ही अब इसका उत्तर देगी।

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